एक बार एक बादशाह ने नौकर को मोहरों की थैली देते हुए कहा - “ले, जा इन मोहरों को फ़क़ीरों में बांट आ.”
नौकर सारा दिन मोहरें बांटने के लिए तमाम जगह घूमता रहा और देर रात को वापस आया. बादशाह ने उसके हाथ में मोहरों से वैसी ही भरी हुई थैली देखकर पूछा - “क्यों मोहरें नहीं बांटीं क्या? इन्हें वापस क्यों ले आए?”
“हुजूर, मैंने फ़क़ीरों को बहुत ढूंढा, परंतु मुझे कोई फ़क़ीर मिले ही नहीं जिन्हें मोहरें दी जा सकें.” नौकर ने उत्तर दिया.
बादशाह का पारा गरम हो गया – वह गरजे - “क्या बकवास करता है – फ़क़ीरों का भी कोई टोटा है – सैकड़ों फ़क़ीर राह चलते ही मिल जाते हैं.”
“आप सही फ़रमा रहे हैं जहाँपनाह – पर मैं सच कहता हूँ, मैंने सारा दिन छान मारा – जो फ़क़ीर थे, उन्होंने ये मोहरें लेने से इनकार कर दिया और जो लेना चाहते थे वे तो किसी हाल में फ़क़ीर नहीं थे. अब बताएं मैं क्या करता?” नौकर ने सफाई दी.
बादशाह को अपनी भूल का अहसास हुआ. सच्चे फ़क़ीर धन से दूर रहते हैं. शेख सादी
नौकर सारा दिन मोहरें बांटने के लिए तमाम जगह घूमता रहा और देर रात को वापस आया. बादशाह ने उसके हाथ में मोहरों से वैसी ही भरी हुई थैली देखकर पूछा - “क्यों मोहरें नहीं बांटीं क्या? इन्हें वापस क्यों ले आए?”
“हुजूर, मैंने फ़क़ीरों को बहुत ढूंढा, परंतु मुझे कोई फ़क़ीर मिले ही नहीं जिन्हें मोहरें दी जा सकें.” नौकर ने उत्तर दिया.
बादशाह का पारा गरम हो गया – वह गरजे - “क्या बकवास करता है – फ़क़ीरों का भी कोई टोटा है – सैकड़ों फ़क़ीर राह चलते ही मिल जाते हैं.”
“आप सही फ़रमा रहे हैं जहाँपनाह – पर मैं सच कहता हूँ, मैंने सारा दिन छान मारा – जो फ़क़ीर थे, उन्होंने ये मोहरें लेने से इनकार कर दिया और जो लेना चाहते थे वे तो किसी हाल में फ़क़ीर नहीं थे. अब बताएं मैं क्या करता?” नौकर ने सफाई दी.
बादशाह को अपनी भूल का अहसास हुआ. सच्चे फ़क़ीर धन से दूर रहते हैं. शेख सादी