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सच्ची कविता

11:30 pm, Posted by दास्तानें, No Comment

एक कवि थे. जिसके सामने होते, उसकी प्रशंसा में कविता कर उसे सुनाते. बदले में उन्हें इनाम में जो कुछ मिलता, उससे गुजर-बसर आराम से चल रहा था.

एक बार वह डाकुओं के डेरे पर जा पहुँचे. डाकुओं के सरदार की प्रशंसा में कवि कविता सुनाने लगे.

डाकुओं के सरदार ने कहा - “इस मूर्ख को पता नहीं है कि हम डाकू हैं – खून-खराबा, लूटपाट हमारा पेशा है – और यह हमारी झूठी तारीफ़ों के पुल बाँध रहा है. इसे नंगा कर डेरे के बाहर फेंक दो.”

नंगे कवि को देख कुत्ते भौंकने लगे. कुत्तों को मार-भगाने के लिए कवि ने पास ही का पत्थर उठाना चाहा, परंतु वह जमीन में धंसा हुआ था. कवि गुस्से में चिल्लाया “कैसे हरामजादे हैं यहाँ के लोग. कुत्तों को तो खुला छोड़ देते हैं, और पत्थरों को जमीन पर गाड़ कर रखते हैं.”

सरदार उसे देख रहा था. उसने कवि की गुस्से में भरी ये बातें सुनीं तो वह हँस पड़ा. कवि को वापस बुलवाया और कहा - “तुम तो बड़े बुद्धिमान मालूम होते हो. चलो, तुम्हारी इच्छा पूरी की जाएगी. जो चाहते हो मांगो.”

कवि बोला - “मुझे मेरे कपड़े वापस कर दीजिए, और मुझे आराम से जाने दीजिए बस”

सरदार बोला - “बस, अरे भाई कुछ और मांगो.”

कवि बोला - “कामना किसी भले मानस से ही की जाती है. आप डाकू हैं – इंसानियत के दुश्मन – लुटेरे...” भय और गुस्से से उसकी आवाज़ कांप रही थी.

सरदार ठठाकर हँसा. बोला “कवि महोदय, यह जो तुमने अभी कहा वही तुम्हारी सच्ची कविता है. सच्ची कविता वही है जिसमें सच्ची बात कही जाए”  शेख सादी

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