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असली फकीर

11:45 pm, Posted by दास्तानें, No Comment

एक बादशाह किसी मुसीबत में फंसा हुआ था, उसने मानता मानी कि यदि उसकी मुसीबत टल गई, तो वह बहुत-सा धन फकीरों में बांट देगा। सौभाग्य से उसकी मुराद पूरी हो गई। उसने अपने एक विश्वासपात्र गुलाम को दिरहमों  की थैली देकर कहा, 'जा, फकीरों में बांट आ।' लोग कहते हैं कि गुलाम बड़ा समझदार था। वह सारे दिन इधर-उधर घूमता फिरा। शाम को लौटने पर उसने दिरहमों की थैली को चूमकर बादशाह के कदमों में रखते हुए कहा, 'हुजूर, मैंने बहुत तलाश किया, लेकिन मुझे कोई फकीर मिला ही नहीं।' बादशाह ने कहा, 'यह कैसे हो सकता है? मेरे हिसाब से इस मुल्क में चार सौ से ज्यादा फकीर हैं।'
गुलाम ने कहा, 'ऐ दुनिया के मालिक! जो असली फकीर है, वह तो धन लेता नहीं और जो धन चाहता है, वह असली फकीर नहीं।' बादशाह हंसा और कहने लगा, 'फकीरों और खुदापरस्तों में मुझे जितनी श्रद्धा है, इस शैतान को उनसे उतनी ही दुश्मनी है, लेकिन बात इसी की ठीक है।'
जो फकीर दिरहम और दीनार ले ले, उसको तू छोड़ दे और दूसरे की तलाश कर। एक बात और, जब तक 'और चाहिए' की हवस बाकी है, किसी को फकीर और परहेजगार कहना ठीक नहीं। फकीर को न दिरहम चाहिए, न दीनार। यदि वह दरम और दीनार तलाश करने लगे, तो दूसरा फकीर तलाश करना चाहिए। जो खुदा से ही लौ लगाए रखता है, वह भीख के टुकड़ों के बिना भी अपनी फकीरी में मस्त रहता है। खूबसूरत अंगुली और कान की लौ, फीरोजे की अंगूठी और कुंडल के बिना भी अच्छी लगती है।    
                                                   -शेख सादी

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