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उदारता

11:51 pm, Posted by दास्तानें, No Comment

मैंने एक गुम्बद पर घास से बंधे हुए कुछ ताजे फूलों के गुलदस्ते रखे हुए देखे। मैंने घास से कहा, 'तू फूलों के साथ रहने योग्य कहां थी!'
वह रो पड़ी और बोली, 'चुप रह! शराफत का अर्थ यह नहीं है कि दोस्ती को भुला दिया जाए। माना कि मुझ में सुन्दरता, रंग और खुशबू नहीं है, किन्तु क्या मैं भी उसी बाग की घास नहीं हूं, जिसमें ये फूल खिलते है?'
इसी प्रकार मैं उस खुदा के दरबार का गुलाम हूं, जो बड़ा रहीम है। मैं उसी की नेमतों का पला हुआ हूं। मुझे उस मालिक से सदा मेहरबानी की उम्मीद है। मेरे पास कोई पूंजी नहीं है और मैंने उसकी सेवा का पुण्य भी नहीं कमाया है, किन्तु वह मेरी जरूरतों को समझता है और यह भी जानता है कि मेरा उसके सिवा और कोई सहारा नहीं है। नियम है कि जब गुलाम बूढ़ा हो जाता है, तो मालिक उसे आजाद कर देता है। ऐ दुनिया बनाने-संवारने वाले सर्वशक्तिमान खुदा! तू महान है। तू अपने बूढ़े गुलाम 'सादी' को बख्श दे। ऐ सादी! तू खुदा की मर्जी पर भरोसा कर। तेरे लिए यही काबा है। तू तो खुदा का गुलाम है। उसी के रास्ते पर चल। जो इस दरवाजे से मुंह मोड़ेगा, वह अभागा है। उसे और कोई दरवाजा नहीं मिलेगा। एक आलम से लोगों ने पूछा, 'उदारता और पराक्रम में कौन-सा गुण श्रेष्ठ है?' उसने उत्तर दिया, 'जिसके पास उदारता है, उसे पराक्रम की आवश्यकता नहीं।'
बहराम गौर की कब्र पर लिखा हुआ है कि सखावत यानी उदारता का हाथ जोर के बाजू से बेहतर है। हातिमताई तो न रहा, लेकिन उसका नेक नाम उसकी दरियादिली के कारण अमर रहेगा।    - शेख सादी

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